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कर्मयोग

मनुष्य का जन्म केवल हाड़तोड़ मेहनत करने के लिए नहीं हुआ है। यह विचार कि कर्म ही जीवन है, बीमार सभ्यता की उपज है, जो अपने नागरिकों को यंत्रों में बदल देना चाहती है। ऐसी सोच ने मनुष्य को उसकी सहजता से, उसकी स्वतंत्रता से, उसके आनंद से वंचित कर दिया है। यहाँ तक कि जो व्यक्ति खुद को सफल मानता है, वह भी अक्सर भीतर से खोखला होता है, क्योंकि उसने अपनी चेतना को किसी बाजारू लक्ष्य के आगे गिरवी रख दिया होता है। समस्या यह नहीं कि लोग काम कर रहे हैं, बल्कि यह है कि वे अपने होने की सार्थकता को काम में ही खोजने लगे हैं। वे यह भूल जाते हैं कि जीवन केवल काम करने के लिए नहीं है, बल्कि जीने के लिए है। यह भूल बचपन में ही डाल दी जाती है—स्कूलों में, परिवारों में, समाज में। बच्चे से यह नहीं पूछा जाता कि वह क्या महसूस कर रहा है, उसे यह सिखाया जाता है कि उसे क्या करना चाहिए। उसका पूरा जीवन किसी पूर्वनिर्धारित लक्ष्य के चारों ओर घूमने लगता है। पहले परीक्षा में अच्छे अंक, फिर नौकरी, फिर अधिक पैसे कमाने की होड़। और जब जीवन समाप्ति की ओर बढ़ता है, तब उन्हें पता चलता है कि उन्होंने कभी जिया ही नहीं। सभ्यता का यह ...