कर्मयोग
मनुष्य का जन्म केवल हाड़तोड़ मेहनत करने के लिए नहीं हुआ है। यह विचार कि कर्म ही जीवन है, बीमार सभ्यता की उपज है, जो अपने नागरिकों को यंत्रों में बदल देना चाहती है। ऐसी सोच ने मनुष्य को उसकी सहजता से, उसकी स्वतंत्रता से, उसके आनंद से वंचित कर दिया है। यहाँ तक कि जो व्यक्ति खुद को सफल मानता है, वह भी अक्सर भीतर से खोखला होता है, क्योंकि उसने अपनी चेतना को किसी बाजारू लक्ष्य के आगे गिरवी रख दिया होता है।
समस्या यह नहीं कि लोग काम कर रहे हैं, बल्कि यह है कि वे अपने होने की सार्थकता को काम में ही खोजने लगे हैं। वे यह भूल जाते हैं कि जीवन केवल काम करने के लिए नहीं है, बल्कि जीने के लिए है। यह भूल बचपन में ही डाल दी जाती है—स्कूलों में, परिवारों में, समाज में। बच्चे से यह नहीं पूछा जाता कि वह क्या महसूस कर रहा है, उसे यह सिखाया जाता है कि उसे क्या करना चाहिए। उसका पूरा जीवन किसी पूर्वनिर्धारित लक्ष्य के चारों ओर घूमने लगता है। पहले परीक्षा में अच्छे अंक, फिर नौकरी, फिर अधिक पैसे कमाने की होड़। और जब जीवन समाप्ति की ओर बढ़ता है, तब उन्हें पता चलता है कि उन्होंने कभी जिया ही नहीं।
सभ्यता का यह प्रशिक्षण दरअसल बीमारी है। यह बीमारी उन लोगों में अधिक गहरी होती है जो खुद को अत्यधिक कर्मठ समझते हैं। ऐसे लोग अपने खाली समय को व्यर्थ समझते हैं, विश्राम को आलस्य कहते हैं, आनंद को अनुत्पादकता मानते हैं। वे भूल जाते हैं कि फूल केवल खिलने के लिए होते हैं, वे किसी उपयोगिता के सिद्धांत से नहीं चलते। प्रकृति ने किसी नदी को इसीलिए नहीं बनाया कि वह प्यास बुझाए, किसी पहाड़ को इसीलिए नहीं रचा कि वह खनिज दे सके। इसके उलट मनुष्य को इस सभ्यता ने महज़ उत्पादक इकाई में बदल दिया है, जिससे अधिकतम काम लिया जा सके।
यह बीमारी इतनी गहरी है कि इसे महसूस भी नहीं किया जाता। यह बीमारी गुलामी है, और गुलाम अक्सर अपनी जंजीरों को ही अपना गहना समझने लगते हैं। यह गुलामी काम की नहीं, बल्कि मानसिकता की है। यह हमें उस आनंद से दूर कर देती है, जो जीवन के हर क्षण में मौजूद होता है—किसी गीत में, किसी शाम के रंगों में, किसी मित्र की हंसी में, किसी प्रेम भरी नजर में। लेकिन इन सबको फालतू मान लिया गया है, क्योंकि यह किसी अर्थव्यवस्था को सीधा फायदा नहीं पहुंचाते।
सवाल यह नहीं कि हमें काम नहीं करना चाहिए, बल्कि यह कि हमें काम को ही जीवन क्यों मान लेना चाहिए? काम जीवन का हिस्सा हो सकता है, लेकिन अगर वही सबकुछ बन जाए, तो जीवन बोझ में बदल जाता है। यह विचार कि जो अधिक काम करता है, वही अधिक मूल्यवान है, गहरी साजिश है। यह साजिश उन लोगों के लिए फायदेमंद है जो व्यवस्था के शिखर पर बैठे हैं। उन्हें ऐसे लोग चाहिए जो हर समय काम करें, लेकिन कभी यह न सोचें कि वे जी क्यों रहे हैं।
स्वस्थ समाज वह नहीं होता जो सबसे अधिक उत्पादक हो, बल्कि वह होता है जिसमें मनुष्य सबसे अधिक स्वतंत्र और आनंदित हो। लेकिन ऐसा समाज तभी संभव है जब हम अपने भीतर से इस बीमारी को निकाल सकें। जब हम यह समझ सकें कि जीवन का उद्देश्य केवल काम करना नहीं है, बल्कि जीना है—बिना किसी कारण के, बिना किसी लक्ष्य के, बस जीने के आनंद के लिए।
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