संक्रांति

जैसे हो रहा है
प्रकृति का ऋतु परिवर्तन, 
वैसे ही बदलता जा रहा है
मानव मन का भी मौसम,

पर्यावरण के हिमयुग सा
प्रेम सहिष्णुता की उष्मा त्याग, 
सम्वेदनाओं का भी हो रहा है
हिमीकरण

संवेदनहीनता, स्वार्थलोलुपता
की बढ़ती सर्दी में
तय है मनुष्य सभ्यता का
विनष्टीकरण।

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