रूस, रशिया और रासपूतिन से पुतिन।
दुनिया को देखने की दो दृष्टियाँ है- एक मंडुक (मेढक) की, दूसरी विहंग (चिड़िया) की। इनके मध्य की कोई भी दृष्टि उथल-पुथल को जन्म देती है।
- ओल्गा तोकार्जुक
घटना २०२२ की है।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने एक संदेश में कहा कि वह यूक्रेन के खिलाफ़ विशेष सैन्य कार्रवाई करने जा रहे हैं। इस खबर ने न सिर्फ़ यूरोप बल्कि पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया। यूँ तो यूरोप ने समय-समय पर युद्ध देखे हैं, दो विश्व-युद्ध झेले हैं, लेकिन अगर आज के दौर में दुनिया कोई तीसरा विश्व-युद्ध देखती है तो उसका मंजर भयानक होगा।
यूक्रेन की जनता इस बात से घबराए हुए तो थे ही, रूस के राष्ट्रपति पर क्रोधित भी थे। वह उन्हें तमाम विशेषणों से नवाज़ रहे थे और उन्हें हिटलर के समकक्ष बता रहे थे। यूक्रेन के कई लोग नॉर्वे और अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों में नौकरी कर रहे हैं, और उनका इस दुनिया की तरफ़ झुकाव समझ आता है। लेकिन, अगर सांस्कृतिक इतिहास देखें तो यूक्रेन और रूस में अंतर करना कठिन है।
निकोलाई गोगोल जैसे साहित्यकार यूक्रेन की ज़मीन पर पले-बढ़े, और आज यह हालात हैं कि उनकी पहचान के लिए भी रूस और यूक्रेन लड़ रहे हैं। यह लड़ाई नयी है, क्योंकि यह विभाजन ही नया है। गोगोल के समय तो ये देश अलग थे ही नहीं। किंतु, इतिहास में मानचित्रों का बदलना तो स्वाभाविक ही है, और उससे जन्मी अस्मिता की लड़ाई भी।
लेनिन द्वारा एक साम्यवादी देश की स्थापना के बाद सोवियत रूस का सफ़र एक महाशक्ति बनने की दिशा में रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्होंने हिटलर जैसे महत्वाकांक्षी पर विजय पाने में मुख्य भूमिका बनायी। साठ के दशक में वे अमरीका के समकक्ष और कई मामलों में बेहतर सैन्य-शक्ति के रूप में स्थापित हुए। शीत युद्ध और मिसाइल स्पर्धाओं से लेकर अंतरिक्ष-स्पर्धाओं का दौर चला। किंतु साम्यवाद का यह गढ़ बदलती दुनिया के वैश्वीकरण और उदारवाद के समक्ष कुछ अलग-थलग पड़ गया।
मार्च 1985 में कम्युनिस्ट नेता मिखाइल गोर्बाचेव के हाथ में जब सोवियत की कमान आयी, उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक सुधार की तरफ़ कदम उठाया। इसे साम्यवादी संरचना के लिए एक ‘ब्लंडर’ भी कहा जा सकता है। गोर्बाचेव की पहली नीति थी ‘ग्लासनोस्त’ यानी राजनैतिक पारदर्शिता। लोकतांत्रिक देशों में यह आम है कि कोई अखबार सरकार की आलोचना करे, राजनैतिक विरोधी खुल कर लिखें और बोलें, किंतु साम्यवादी देशों में इस पर लगाम लगायी जाती रही। गोर्बाचेव का यह कदम जिसमें मीडिया को स्वतंत्रता दी गयी, प्रायोगिक रूप से आत्मघाती साबित हुआ।
दूसरी नीति थी ‘पेरेस्त्रोइका’ यानी आर्थिक पुनर्गठन जिसमें निजीकरण, विदेशी निवेश और बेहतर श्रमिक परिस्थितियों की बात थी। ये भी लोकतांत्रिक और पूँजीवादी संरचना के देशों की पद्धति थी, जिसके खाँचे में सोवियत रूस फिट नहीं बैठ सका।
गोर्बाचेव ने स्वयं ही कहा, “हमारी नयी व्यवस्था खड़ी हो पाती, उससे पहले ही पुरानी व्यवस्था मुँह के बल गिर गयी”
सबसे पहले तीनों बाल्टिक राज्य - एस्टोनिया, लिथुआनिया और लाटविया अलग हुए। उसके बाद बाकी घटकों जिनमें यूक्रेन से लेकर उज़्बेकिस्तान तक थे, ने स्वयं को सोवियत से अलग किया। 25 दिसंबर, 1991 को आख़िरी बार क्रेमलिन पर सोवियत का झंडा फहराया।
उस दिन गोर्बाचेव ने कहा,
“हम अब नयी दुनिया में रह रहे हैं। शीत युद्ध का अंत हो चुका है। हथियारों की प्रतिस्पर्धा खत्म हो चुकी है। देश का वह पागलों की तरह सैन्यीकरण अब नहीं होगा, जिसने हमारी अर्थव्यवस्था, व्यवहार और हमारे हौसलों को कमजोर कर दिया था।”
मिखाइल गोर्बाचेव के इस कथन से यह स्पष्ट नहीं था कि यह एक विजेता का कथन था, या हारे हुए योद्धा का। बहरहाल, उन्हें पहले ही नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका था, तो उनके इस कथन से दुनिया को कुछ राहत महसूस हुई होगी।
इस विघटन के बाद यूक्रेन के हिस्से दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा परमाणु ज़ख़ीरा आ गया। ये परमाणु हथियार भी ऐसे हाथी हैं, जिन्हें रख कर मूँछ पर ताव तो दिया जा सकता है, मगर उन्हें पालने में जेब खाली हो जाती है। यूँ भी दुनिया में यह निर्णय लिया जा रहा था कि अब परमाणु-प्रतिस्पर्धा कम कर दी जाए। यूक्रेन 1986 में चेर्नोबिल की परमाणु ऊर्जा प्लांट में हुए रिसाव से एक विभीषिका झेल चुका था, तो इस कदम का एक भावनात्मक पक्ष भी था।
मई 1992 में यूक्रेन ने सामरिक शस्त्र न्यूनीकरण संधि (Steategic Arms Reduction Treaty - START 1) पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत वह परमाणु प्रतिस्पर्धा से दूर रहने की प्रतिबद्धता दिखा रही थी। दिसंबर, 1994 में बुडापेस्ट मेमोरेंडम पर यूक्रेन के राष्ट्रपति लियोनिद कुचमा सहित रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन, अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने हस्ताक्षर किए। दो वर्ष के अंदर यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार रूस को, और यूरेनियम अमरीका को दे दिए, जिसके बदले उसे ठीक-ठाक आर्थिक लाभ दिए गए। इस अप्रत्याशित कदम के लिए यूक्रेन को एक शांतिप्रिय देश के वैश्विक उदाहरण रूप में प्रचारित किया गया।
लगभग एक दशक तक यूक्रेन में शांति बनी रही, आर्थिक प्रगति भी होने लगी, और ऐसा लगा कि यह फ़ैसला उचित था। शेष यूरोप 1993 में ही एक यूरोपियन यूनियन संघ बना कर एक हो चुका था, और यूक्रेन का मन इस यूनियन और रूस के मध्य डोलने लगा। बाहर से भी खींच-तान, लोभ-लुभावन शुरू हुए। यूक्रेन के पश्चिमी हिस्से पर यूरोप का, और पूर्वी हिस्से पर रूस का प्रभाव पड़ने लगा।गोर्बाचेव द्वारा शीत युद्ध खत्म होने की भविष्यवाणी अर्धसत्य थी।
अमरीका और यूरोप के देशों ने मिल कर जो सैन्य सहयोग संगठन NATO बनाया था, वह समय के साथ शक्तिशाली होता जा रहा था, और नित नए सदस्य बना रहा था। वहीं, रूस, चीन और उत्तरी कोरिया का साम्यवादी गठजोड़ इन खतरों को लंबे समय से भाँप रहा था। फ़िलहाल चीन और उत्तरी कोरिया को किनारे रखते हैं, रूस के लिए यह महत्वपूर्ण था कि नाटो को अपनी सीमा से दूर रखा जाए। हालाँकि नॉर्वे, बाल्टिक देश और पोलैंड जैसे नाटो सदस्य रूस की सीमा को छूते थे, किंतु यूक्रेन जैसे अपेक्षाकृत बड़े देश को रूस अपने प्रभाव में रखना चाहता था।
रूस इसमें कुछ हद तक सफल भी रहा, और यूक्रेन में नियमित रूस की तरफ़ रुझान रखने वाले राष्ट्रपति आते रहे। 2010 में विक्टर यानुकोविच यूक्रेन के राष्ट्रपति चुने गए। उस समय तक पश्चिमी यूक्रेन की बड़ी जनसंख्या यह चाहने लगी थी कि यूक्रेन यूरोपियन यूनियन की सदस्यता का प्रयास करे। यानुकोविच ने इस दिशा में कदम बढ़ाए, किंतु रूस उन्हें ऐसा करने प्राकृतिक गैस की सस्ती डील का लालच दिया, वह यूरोपियन यूनियन वाले निर्णय से मुकर गए।
21 दिसंबर 2013 की रात यूक्रेन की राजधानी कीव के मैदान में जनता उमड़ पड़ी और राष्ट्रपति से इस्तीफ़ा माँगने लगी। यह आंदोलन कहलाया ‘यूरोमैडन’ (यूरो और मैदान से)। पूरे यूक्रेन में विद्रोह के बिगुल बज गए, और लेनिन की मूर्ति तोड़ दी गयी। आखिर, फरवरी 2014 में राष्ट्रपति यानुकोविच को अपने सहयोगियों के साथ यूक्रेन से भागना पड़ा।
इस अशांत दौर में यूक्रेन के दक्षिण में स्थित क्रीमिया एक बार फिर इतिहास के गर्त से बाहर आया। वहाँ रूस के समर्थन में विद्रोह होने लगे। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पूतिन ने बुडापेस्ट समझौते को स्व-निर्धारित नैतिक आधार पर भंग करते हुए क्रीमिया पर क़ब्ज़ा कर लिया। वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने अपनी सीमा से लगे यूक्रेन के दो समृद्ध प्रांतों डोनेत्स्क और लुहांस्क (डॉनबास) में बाग़ी सेनाओं को हथियार भेजने शुरू कर दिए। यह एक तरह के गृह-युद्ध की शुरुआत थी, जब यूक्रेन के अंदर रूसी संस्कृति और यूक्रेनियन संस्कृति के टकराव के बीज बोए गए।
2014 में आए राष्ट्रपति पेत्रो पोरोशेन्को के लिए इस गृहयुद्ध के साथ-साथ यूरोपीय संघ में विलयन के प्रयास करना कठिन होता गया। पूर्ण सदस्यता तो नहीं मिली, लेकिन 2017 में यूरोपियन संघ के साथ एक मसौदे पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए। ज़ाहिर है व्लादिमीर पूतिन इस फ़ैसले से खुश नहीं थे कि यूक्रेन अब उनके प्रभाव से दूर जा रहा था। इसकी संभावना बढ़ने लगी थी कि वे नाटो सदस्यता की ओर भी कदम बढ़ाएँगे।
इस मध्य एक विदूषक कलाकार व्लादिमीर जेलेंस्की एक टी.वी. शो कर रहे थे, जिसका शीर्षक था- जनता के सेवक। इसमें वह यूक्रेन के राष्ट्रपति का अभिनय करते। वे इतने लोकप्रिय हुए कि 2018 में उन्होंने इसी नाम से पार्टी बना ली, और 2019 में राष्ट्रपति चुनाव जीत गए। जेलेंस्की ने यह स्पष्ट घोषणा की थी कि वह यूक्रेन को यूरोपीय संघ और नाटो की सदस्यता दिलवाने का प्रयास करेंगे। जून 2021 के ब्रूसेल्स सम्मेलन में नाटो देशों ने यूक्रेन की सदस्यता पर विचार किया।
अगले ही महीने व्लादिमीर पूतिन ने एक लंबा भावनात्मक लेख लिखा जिसमें उन्होंने रूस और यूक्रेन के एक संस्कृति की दुहाई दी और कहा कि यह अलगाव कभी न हो। उनके अनुसार यूक्रेन रूसी संस्कृति और अस्मिता का अभिन्न हिस्सा है।
दूसरी तरफ़ यूक्रेन राष्ट्रवाद आक्रामक हो रहा था। ख़ास कर क्रीमिया पर क़ब्ज़ा और डॉनबास प्रांत में विद्रोह के कारण रूस की छवि एक शत्रु की तरह बनती जा रही थी। पूर्वी यूक्रेन के रूस समर्थक भी अब अपना झुकाव बदलने लगे थे। यूक्रेन में यूक्रेनियाई भाषा के प्रयोग पर पहले भी बल दिया गया था, अब इसे राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा जाने लगा। मसलन कीव को पहले अंग्रेज़ी में keiv लिखा जाता था, जिसे यूक्रेन ने अपने उच्चारण के अनुसार kyiv लिखना शुरू किया। यह भारत के बैंगलोर से बेंगलुरू और बॉम्बे से मुंबई नाम परिवर्तनों की तरह देखा जा सकता है।
व्लादिमीर पूतिन ने यूक्रेन की नाटो सदस्यता की संभावना पर कड़ी आपत्ति जतायी और सैन्य कारवाई की धमकी दी। उन्होंने कहा कि रूस की सीमा पर नाटो की मिसाइलें तनी रहना रूस की शांति के लिए उपयुक्त नहीं। उन्होंने अपनी परमाणु शक्ति का हवाला देकर कहा कि ऐसी स्थिति में उन्हें भयानक कदम उठाने पड़ सकते हैं। 21 फरवरी 2022 को उन्होंने दोनों डॉनबास प्रांतों को देश के रूप में स्वीकार लिया, और उनकी यूक्रेन से स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इसके साथ ही उन्होंने यूक्रेन के रूसी-भाषी नागरिकों की सुरक्षा का हवाला दिया।
तीन दिन बाद रूस की सेना यूक्रेन पर मिसाइलें दाग रही थी। डेढ़ लाख से अधिक सैनिकों ने यूक्रेन को तीन दिशाओं से घेर लिया। उत्तर में बेलारूस की तरफ़ से कीव पर हमले होने लगे। रूस की तरफ़ से खारकीव में। दक्षिण में क्रीमिया से घेराबंदी हो रही थी। यूक्रेन की सरकार ने मार्शल लॉ लगा दिया।
राष्ट्रपति जेलेंस्की ने इसे अपनी अस्मिता की लड़ाई कह कर दुनिया से समर्थन माँगा। नाटो सदस्यता नहीं होने के कारण उन देशों की सेनाएँ यूक्रेन की ज़मीन पर नहीं उतर सकती थी, किंतु बाहर से आर्थिक और अस्त्र-सहयोग दे सकती थी। अपने अनुभव के कारण जेलेंस्की एक अच्छे मीडिया मैनेजर भी साबित हुए, जिन्होंने बहुत कम समय में अपनी मज़बूत छवि विश्व-पटल पर रखी। उन्होंने यूरोपीय संघ के समक्ष कहा,
“आप सिद्ध करें कि आप यूरोपीय हैं, और हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे। मृत्यु पर जीवन और अंधकार पर प्रकाश की विजय होगी। यूक्रेन की जय होगी।”
इससे पूर्व उन्होंने अमरीका द्वारा देश छोड़ने के सुझाव पर कहा था कि मुझे टैक्सी नहीं, हथियार भेजें। कुछ लोगों के मन में उनकी छवि एक विदूषक से राजनेता बने व्यक्ति की रही जिन्होंने देश को युद्ध में झोंक दिया। वहीं कुछ लोग जैसे नॉर्वे के प्रोफ़ेसर शेल रिंगदाल उनकी तुलना विंस्टन चर्चिल से करते हैं। यूँ तो रूस के समक्ष यूक्रेन एक मामूली देश है, किंतु उन्होंने इन पंक्तियों के लिखने तक एक हफ्ते की लड़ाई पूरी कर ली है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि कभी कोसैक योद्धाओं की यह धरती रूसी सेना का अकेले ज़मीनी मुक़ाबला कर सकती है।
कीव को कभी मंगोलों ने नेस्तनाबूद किया था, और अब अपनी ही संस्कृति का आक्रमण झेलना पड़ा। इससे यूक्रेन में रूस-विरोधी भावनाएँ बढ़ने की ही संभावना है। वहीं रूस भी अपना वह गौरव स्थापित करना चाहती है जो एक विशाल साम्राज्य के रूप में था। यह भी कहा जा सकता है कि रूस मात्र अपनी सीमाओं की सुरक्षा चाहती है, जिसके लिए यूक्रेन का रूस-समर्थक होना आवश्यक है।
रूस, रशिया और रासपूतिन
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संदेश की अपेक्षा है