"दावा"


ज़िंदगी एक खोज है, और इस खोज में जो सबसे बड़ा रोड़ा है, वह है दावा—यह दावा कि मैंने जान लिया, समझ लिया, पा लिया। लेकिन सच तो यह है कि जो जानने का दावा करता है, वह अभी द्वार पर भी नहीं पहुंचा। सच्चा ज्ञान दावा नहीं करता, वह तो आग है—जलाने के लिए, मिटाने के लिए, और फिर राख से कुछ नया उगाने के लिए। 
जो कहे कि वह बुद्ध को जानता है, वह शायद बुद्ध की मुस्कान का मतलब भी नहीं समझा। बुद्ध ने कभी नहीं कहा कि मैंने सत्य को पकड़ लिया; उन्होंने तो बस इतना कहा कि दुख है, और उससे मुक्ति का रास्ता है। एक बार एक साधु ने गंगा के किनारे बैठे अपने शिष्यों से कहा, “मैंने बुद्ध का सारा दर्शन समझ लिया।” तभी एक नाविक वहां से गुज़रा और उसने पूछा, “महात्मा, आपने बुद्ध को जाना, लेकिन क्या आपने उस मछुआरे को जाना, जो हर सुबह अपने बच्चों के लिए मछली पकड़ता है? क्या आपने उसकी थकान को जाना, उसकी उम्मीद को जाना? साधु चुप हो गए। सच्चा ज्ञान किताबों में नहीं, ज़िंदगी की सांसों में बसता है। जो बुद्ध को जानने का दावा करता है, वह शायद अभी खुद को भी नहीं जान पाया।
मार्क्स का सिद्धांत और क्रांति की धूल
जो कहे कि मार्क्स का सिद्धांत उसके लिए हथेली की रेखा जितना साफ है, उससे पूछिए कि क्या वह उस मज़दूर की आंखों में झांक सका, जो सुबह से शाम तक ईंटें ढोता है? मार्क्स ने कभी नहीं कहा कि इतिहास की किताबें लिख दो और क्रांति हो जाएगी। उन्होंने तो कहा कि इतिहास संघर्षों की धूल में लिखा जाता है। एक बार एक युवा क्रांतिकारी ने अपने दोस्तों के बीच ज़ोर-शोर से मार्क्स के विचार सुनाए। उसने कहा, “मैंने पूंजीवाद को समझ लिया।” लेकिन जब गाँव में सूखा पड़ा और किसान भूख से बिलबिलाने लगे, वह युवा किताबें लिए शहर की सड़कों पर नारे लगाता रहा। सच्चा मार्क्सवादी वह नहीं जो नारे गढ़ता है, बल्कि वह है जो उस धूल में उतरता है, जहां लोग ज़िंदगी के लिए जूझ रहे हैं।
जो कहे कि उसने शंकराचार्य को समझ लिया, वह शायद अभी माया और ब्रह्म के बीच झूल रहा है। एक बार एक पंडित ने अपने शिष्यों से कहा, “मैंने अद्वैत को जान लिया। यह संसार मिथ्या है।” उसी रात, जब उसका घर चोरों ने लूट लिया, वह सुबह सबसे पहले थाने पहुंचा और चिल्लाने लगा, “मेरी संपत्ति वापस करो!” शिष्यों ने पूछा, “गुरुजी, आप तो कहते थे कि सब मिथ्या है?” पंडित लज्जित हो गया। सच्चा अद्वैत वह नहीं जो तर्कों में उलझा हो, बल्कि वह है जो ज़िंदगी की हर सांस में एकरसता को जीता हो। जो परम तत्व को जानने का दावा करता है, वह शायद अभी अपने भीतर की अशांति को भी नहीं समझ पाया।
प्रेम: सौदा नहीं, घटना
जो कहे कि वह प्रेम को जानता है, वह शायद अभी बाज़ार की सौदेबाज़ी से बाहर नहीं निकला। प्रेम कोई किताबी परिभाषा नहीं, वह तो एक ऐसी आंधी है जो बिना बताए आती है और सब कुछ उड़ा ले जाती है। एक कवि ने एक बार अपने प्रेम का बखान करते हुए कहा, “मैंने प्रेम को हर रंग में देखा है।” लेकिन जब उसकी प्रियतमा ने उससे कहा, “मुझे तुम्हारे शब्द नहीं, तुम्हारा साथ चाहिए,” तो कवि खामोश हो गया। प्रेम बोलता नहीं, वह बस होता है। वह उस माँ में है, जो रात-रात भर जागकर बच्चे की सांसें गिनती है। वह उस दोस्त में है, जो बिना कुछ कहे तुम्हारी चुप्पी समझ लेता है। जो प्रेम का दावा करता है, वह शायद अभी खुद को भी नहीं खोल पाया।

राजनीति: सत्ता की नहीं, पीड़ा की आवाज़

जो कहे कि वह राजनीति को जानता है, वह शायद किसी झंडे के पीछे छिप गया है। राजनीति कोई किताबी नीति नहीं, वह तो जनता की भूख, उसकी आंखों की नींद, और खेतों के सूखेपन में उगती है। एक बार एक नेता ने अपने भाषण में कहा, “मैं जनता की हर नब्ज़ जानता हूं।” लेकिन जब बाढ़ आई और गाँव डूबने लगे, वह अपने आलीशान बंगले में बैठा टीवी पर खबरें देख रहा था। सच्ची राजनीति वह है, जो सड़कों पर, गलियों में, और लोगों के दुखों के बीच पैदा होती है। जो दावा करता है कि वह राजनीति को समझ गया, वह शायद सत्ता को समझ गया, जनता को नहीं।

दर्शन: किताबों से ज़िंदगी तक
जो कहे कि उसने दर्शन को समझ लिया, उससे पूछिए कि उसने आज सुबह क्या खाया और क्यों? दर्शन कोई किताबों का बोझ नहीं, वह तो ज़िंदगी को नए सिरे से देखने की कला है। एक दार्शनिक ने अपने शिष्यों को बताया, “मैंने कांट और हगल को समझ लिया।” लेकिन जब उसका बेटा बीमार पड़ा, वह उसी पुराने अंधविश्वास में पड़ गया, जिसके खिलाफ वह व्याख्यान देता था।। सच्चा दर्शन वह है, जो तुम्हारी रसोई में, तुम्हारी मेहनत में, और तुम्हारी नींद में उतर आए। जो दर्शन को किताबों में छोड़ देता है, वह ज़िंदगी को वही पुराना ढर्रा घसीटता रहता है।


खुद को जानने की यात्रा
जो कहे कि उसने खुद को जान लिया, उसे बस इतना कह दीजिए—थोड़ा चुप रहो।। ‘स्व’ कोई पत्थर की मूर्ति नहीं, वह नदी है, जो हर पल बदलती है। एक बार एक संन्यासी ने कहा, “मैंने आत्मा को पा लिया।” लेकिन जब उसे गुस्सा आया, जब उसे मोह ने घेरा, वह वही पुराना इंसान बन गया।। सच्चा स्वयं वह है, जो मेहनत, मोह, और सृजन के बीच पकता है।। आज जो तुम हो, वह कल नहीं रहोगे। जो खुद को जानने का दावा करता है, वह शायद अभी रास्ते पर है।


सत्य जानना: सवालों की नदी 
दरअसल, जो सत्य में जीता है, वह कभी दावा नहीं करता।। वह सवाल करता है, कंधे से कंधा मिलाकर चलता है, न गुरु बनता है, न शिष्य ढूंढता है।। वह जीता है—पूरी ईमानदारी से, हर भ्रम को टटोलते हुए, हर विसंगति को पहचानते हुए।। एक बार एक किसान ने अपने बेटे से कहा, “बेटा, मैंने ज़िंदगी से बस एक चीज़ सीखी है—हर सुबह नया सवाल पूछो।। क्या मैं आज सच के साथ हूं? क्या मैं दूसरों के साथ हूं?।।” उस किसान ने कोई किताब नहीं पढ़ी, लेकिन उसकी बातों में वह ज्ञान था, जो बुद्ध, मार्क्स, और शंकराचार्य की किताबों से भी गहरा था।।

सच्चा जानना किताबों में नहीं, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में है।। वह उस विचार में है, जो संघर्ष से पकता है।। वह उस मौन में है, जो शब्दों के पीछे छिपा है।।


नदी बनो, पत्थर नहीं
जो सत्य में जीता है, वह नदी बन जाता है—वह जो बहती है, मिटती है, किनारों को बदलती है।। वह पत्थर पर नाम नहीं लिखती, वह समय की धड़कनों में उतर जाती है।। वह न प्रकाश का दावा करता है, न अंधकार से डरता है।।। वह केवल चलता है—भीतर की उस धुन पर, जो किसी और की वाणी नहीं, बल्कि ज़िंदगी के संघर्ष से उपजा मौन संगीत है।।

तो आइए, दावे छोड़ें।। सवाल उठाएं।। कंधे से कंधा मिलाएं।। और उस नदी में उतरें, जो हर पल नया रास्ता बनाती है।। क्योंकि सत्य जानना, जीना है—हर सांस में, हर कदम में।

यह ब्लॉग उन सभी के लिए है, जो यह मानते हैं कि ज़िंदगी कोई जवाब नहीं, एक सवाल है।। यह उन लोगों के लिए है, जो दावों से परे, सच्चाई की खोज में निकलना चाहते हैं।।। 


जून ०८ सन् २०२५

पठानकोट 

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