चित्र, दर्शन और जीवन।



बोलना एक बात है, लिखना दूसरी बात है और बोलते हुए लिखना तीसरी बात है। लेकिन जरूरी नहीं बोलते और लिखते हुए ही अपनी बात कही जाए। पहले बोला, फिर लिखा और फिर बोलते हुए भी लिखा। पर फिर भी बहुत कुछ ऐसा था, जो नहीं कह पा रहा था।
कहीं कुछ तो था,जिसको शब्द,स्वर,आवाज से न समझ पा रहा था और ना समझा पा रहा था।
कुछ देख कर उसे व्यक्त करने का मन करता था।
पर व्यक्त हो नहीं पाता था।उसको जैसे देखा,बिल्कुल वैसे ही व्यक्त करना चाहता था।पर समस्या यह थी कि बिल्कुल वही कैसे कहा जाए,क्योंकि लिखने और बोलने पर वह बदल जाता था।
भाषा लिखित हो या मौखिक,है तो सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम।इस अहसास ने अंतरात्मा को निरंतर कहने-सुनने-सुनाने-समझने-समझाने के नए माध्यमों को समझने की लालसा पैदा की जैसे सामने कोई सिद्धांत नजर आया तो जरूरी नहीं सिद्धांतों को गद्य-पद्य-लेख-लेखनी-समीकरण या किसी रोचक प्रकरण से समझाया जाए चित्रों से भी समझाया जा सकता है।कुछ सिद्धांत अपनी पूर्णता में सिर्फ चित्र से ही समझ आ सकते हैं।ऐसे ही मन में उठने वाले बहुत सारे विचार,दृष्टिकोण और सिद्धांत जब सामने दिखे तो उन्हें चित्र के माध्यम से कहना बहुत आसान लगा। 
चित्र उसी सिद्धांत को उसकी समग्रता में समझा देंगे, जो शायद आपको लेख या सवाल हल करके भी समझ ना आए। चित्र से बहुत विचित्र रहस्य भी समझ आ जाते है। विभिन्न तरह के समाज और उनमें रहते कई विचार धाराओं के लोग किस सरलता से एक दूसरे में उलझते हुए रहते हैं और फिर निकल भी आते हैं। इसको चित्रों से समझने की जरूरत है।
चित्र में रंगों का आपस में उलझना। जैसे जननी और जनित का प्रगाढ़ संबंध उनमें देखना, शरीर का टूटना, टूट कर दो हो जाना। लंबे समय तक नए का पोषण, पुराने का धर्म होना। ढलती साँझ का बूढ़े वृक्ष को हिम्मत देना। रात्रि का भोर में प्रवेश करना। सुबह का आना। संक्रमण (transition) काल को समझना।
जब आसपास सब धुंधला और उलझा हो तब कहीं दूर स्पष्टता का दिखना। उस स्पष्ट ज्योति किरण के लिए जीते रहना। दूर दिखते उस उजाले की ओर बढ़ते जाना। मेघ की बूंदों से रवि की किरणों का गुजरना, प्रकाश का टूटना, विक्षेपण, अपवर्तन और परावर्तन का एक क्रम में होते रहना, इन्द्रधनुष का बनना।
शक्तिशाली तरंगों का सूक्ष्मातिसुक्ष्म अवरोध से टकरा कर बिखर जाना। पेड़ों का बोलना, पत्तियों का डोलना, पुष्पों का सोचना, तितलियों का खेलना, मकड़ जालों का बुनना। प्रकृति का खुद को प्रतिबिम्ब में देखते रहना।
इन सबको चित्रों में देखना ही किसी को दर्शन और सिद्धांत समझा सकता है।
वर्णमाला के सारे शब्द हर उस अहसास या दृश्य का दृष्टांत देने में सक्षम नहीं हैं,जो मानव समझ के परे है।अनुभवों के यही विस्मयकारी रूप और स्तर शब्दों और स्याही को असहाय कर जाते हैं।सिर्फ चित्र नहीं हैं।चित्र जैसी अनेक विधाएँ हैं।
विज्ञान हो,विभिन्न कलारूप हों या दर्शन सब युक्तियाँ हैं अपनी बात कहने की युक्तियाँ। सोचने की शक्ति को भी इसी तरह देखा जा सकता है। चित्र सोचने की नई दिशा प्रदान करते हैं। 
ये हम सोचते है कि सिर्फ हम इंसानों को विक्षेपण समझ आता है, उसके सिद्धांत को उसके समीकरण को हमने व्यक्त किया है पर ऐसा जरूरी नहीं है। विक्षेपण प्राकृतिक है।
अन्य जीव-जंतु जैसे चिड़िया आदि भी विक्षेपण को समझते हैं, उसे वह अपनी भाषा में व्यक्त भी करते हैं, जैसे हम अपनी भाषा में करते है। जैसे चमगादड़ बायो सोनार समझते हैं, वो देखते भी सुन कर है। बायो सोनार अर्थ प्रतिध्वनि द्वारा स्थिति निर्धारण करते हैं। ध्वनि उत्पन्न करते हैं।
प्रतिध्वनि की सघनता और समय अंतराल के आधार पर वस्तुओं की दूरी, उनका प्रकार और आकर समझ जाते हैं। अर्थात किसी एक अनुभूति को, किसी बोध को भी कई तरीके से समझा जा सकता है। अनंत तरीकों से समझा जा सकता है। 

जैसे ईश्वर को समझने के बहुत तरीके है उसी तरह परावर्तन भी एक सिद्धांत है पर उसको हम कई तरीके से समझ सकते है। किसी पर एक ही तरीके से उसको समझने का दवाब बनाना गलत है, यह समझ आया। समझ बहुआयामी है, उसे बहुआयामी रहने देना है। कई तरीके से समझना है और कई तरीके से समझाना है, ताकि जिसको जिस तरीके से समझ आए वह वैसे समझ ले।
इस तरह जिसको एक तरीके से समझ आ जाए, वह दूसरे तरीके से समझने की कोशिश कर सकता है। आप दूसरे, तीसरे तरीके से भी समझेंगे तो और बेहतर समझ पाएंगे। समझ का विकास होगा। सम्पूर्ण होना असम्भव है। क्योंकि सम्पूर्ण तो अनंत जैसा है। जितना जाएंगे, उतना जाते जाएंगे।
पर संपूर्णता की तरफ जाना संभव है। सतत चलते रहना संभव है। एक तरीके से समझना या ना समझ पाना बड़ी और छोटी बात नहीं है। ज्यादा तरीकों से समझना बहुत अच्छी बात है। आँखों से समझने पढ़ने की बात भी तो सुनी ही होगी। आँखों में चित्र बन जाता है। वह चित्र सब समझा देता है।
आँखों में बना चित्र सिद्धांत, व्यक्ति और प्रकृति तीनों को समझ लेता है। चित्र आपके सामने है। सोच और सिद्धांत उसके अंदर है। पिछले कुछ समय से जीवन को चित्रों में कैद करना बहुत पसंद आने लगा है। अपने कहने को एक नई भाषा मिलने पर आनंद आने लगा है।
एक अबोध शिशु को जो व्यक्त कर पाने की सक्षमता पर जो आनंद मिलता है कुछ वैसा ही अहसास इस नई भाषा पर हो रहा है। आपको वह समझ आए जो न बोल पाऊंगा और न लिख पाऊंगा। बस चित्र के माध्यम से चित्र की भाषा में दिखा पाऊंगा।
इसी आशा के साथ कि हम सब भाषा, बोली, लेखन, चित्र और इसके अलावा भी अन्य सभी विधाओं से जीवन को देखते रहें, जीवन को उसके समग्र रूप में समझते रहें और हम सभी का जीवन पूर्णता की ओर अग्रसर होता रहे।

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