प्रेम 🌱
सागर किनारे पर हम लहरों से इतनी दूरी बनाकर बैठते हैं कि हम उसे वहीं बैठ कर घंटों तक बस देखते रहें या निहारते रहें..तभी अचानाक से एक लहर इतनी बड़ी आती है कि हम जल्दी से उठकर उन्हीं लहरों से दूर भागते हैं जिन्हें अभी हम इतने गौर से देख रहे थे कि हमारी पलकें तक झपकने से पहले कई बार सोच रहीं थीं कि कहीं हम कुछ मिस न कर दें..लेकिन अचानक उसे पास आता देख हम भागते हैं ताकि वो हमें छूकर कहीं हमें भिगो न दे..
और जब हमारे लाख कोशिश के बाद भी वो लहर हमें भिगो ही देती है तब हमारा सारा घमंड वहीं उसी लहर के साथ बह जाता है और समंदर में मिल जाता है..हमे एहसास होता है कि हम कितने छोटे हैं इस दुनिया में, और ये दुनिया मे कितना कुछ है जिसके सामने हमारी कोई औकात ही नहीं..
जब कभी मैं तुम्हें भी गुस्से में एक टक घूर रहा होता हूँ, लगता है तब तक तुम्हें घुरुं जब तक तुम मुझसे डर कर अपनी नज़रें नीची नही कर लो..और तभी तुम हल्के से मुस्कुरा देती हो..यह मुस्कान ठीक उसी लहर की तरह होती है जो मुझसे मेरा तमाम क्रोध अपने साथ लेकर कहीं तुम्हारी आँखों के समंदर में ही गुम हो जाती है..और मैं बस खड़ा रह जाता हूँ.. भागने की लाख कोशिशों के बाद भी..
तब पता चलता है कि क्रोध भी प्रेम के आगे वैसा ही जैसे हम इस सागर के सामने..
सागर की लहरें हमारे पैरों को छूकर जब लौटने लगती हैं तब हमारे पैरों के नीचे दबी हुई रेत भी उस लौटती हुई लहर के साथ खिसक कर चली जाती है..और फ़िर हमें हमे लगता है कि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन इन किनारों को रेत के बगैर ही लौटना होगा..एक दिन ये लहरें बस खाली हाथ लौट जाएंगी..और फ़िर कभी लौट कर यहाँ नही आएंगी..ये एहसास ठीक वैसा ही है जैसा प्रेम में जुदाई के बाद होता है..लगता है कि जैसे अब कुछ नहीं बचा, लगता है कि जैसे हमसे हमारा सब कुछ छीन लिया गया हो..लगता है मानो हमारे पैर के नीचे से निकली वो ज़रा सी रेत ही हमारा सब कुछ था..हमारे पैरों की नीचे आया वो ज़रा सा ख़ालीपन एक पल में पूरी ज़िंदगी तन्हा बिता देने वाला अनुभव दे जाता है..
हमारे पैरों के नीचे से निकली हुई ज़रा सी वो रेत हमारा ध्यान कुछ इस तरह अपनी तरफ़ खींच लेती है कि हम देख ही नहीं पाते हैं की जिस लहर के ज़रा सी रेत लेकर लौट जाने से हम इतने दुःखी हो रहे हैं उससे कहीं ज्यादा रेत उसने हमारे चारों तरफ बिखेर दी है..हम देख ही नहीं पाते हैं कि उस लहर ने ज़रा से के बदले कितना कुछ हमें देकर चली गई है, वो भी बिना किसी पछतावे के..और देखिए कि हम कितने स्वार्थी हैं कि हमे ज़रा सी शर्म नहीं आती ये कहते हुए की उसने हमसे हमारा सब कुछ छीन लिया.. हम अपने स्वार्थ में इतना खो जाते हैं कि ये भी भूल जाते हैं कि जो वो ले गयी अपने साथ वो भी उसका ही था..
ऐसे ही जाने वाले प्रेम में हमारा सब कुछ लुट जाना भी हमारा वहम होता है, जबकि जाने वाला प्रेम हमें देकर जाता है "बेतहाशा प्रेम, कई खूबसूरत यादें, ढेर सारी उम्मीदें, कई खूबसूरत सी नोक-झोंक, कुछ खट्टी मीठी सी बातें जिन्हें हम ज़िंदगी भर रोज़ भी याद करें तो भी हमारा मन इन्हे दोबारा याद करेगा, उनकी हथेलियों की गर्माहट, उनके होंठो के उस स्वाद को भी हमारी जीभ पर छोड़ जाता है जो दुनिया में और कहीं नही है" परतुं हमारा सारा ध्यान तो बस उसके लौट जाने पर होता है, इन सब के बारे में हम सोचते ही नहीं..जाने वाला प्रेम भी इन लहरों की तरह ही हमें अपने साथ ले जाए हुए की तुलना में कहीं ज्यादा देकर जाता है..
लहरें जितनी रेत अपने साथ लेकर जाती हैं न..उससे कहीं ज्यादा रेत वो हमारे आस पास छोड़कर बस चुपचाप वापस लौट जाती है..!
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