प्रकृति अद्वैत और मानव

अब तक हुए सबसे बेहतरीन मनोविचारकों में से एक एरिक फ्रॉम ने कहा है कि मनुष्य की मूलभूत कठिनाई ये है कि, है तो वो प्रकृति का एक अंग पर जीवन प्रयन्त कोशिश करता है प्रकृति से अलग हो जाने के लिए ! यही दिक्कत है मनुष्य के साथ । वह है तो मौलिकतः पशु ही लेकिन जीवनपर्यंत यह सिद्ध करने की कोशिश में लगा रहता है कि वह कुछ अलग है ! भिन्न है । यह भिन्न होना वैसा ही है जैसा हिरन भिन्न है चीते से । शार्क भिन्न है बाज से । कबूतर भिन्न है कुत्ता से । ऐसे ही मनुष्य भिन्न है अन्य पशुओं से । पशुओं में एक पशु है मनुष्य । तथाकथित धर्मों ने इसमें बड़ा रोल अदा किया कि मनुष्य अपने को प्रकृति से ऊपर समझे। प्रकृति से अलग होने की जो भावना है यह पहले मनुष्य में धर्म के द्वारा पैदा हुआ और फिर विज्ञान के द्वारा । धर्म और विज्ञान दोनों ने मिलकर मनुष्य के मन को प्रकृति से तोड़ दिया । ऐसा कि मनुष्य के मन और प्रकृति में एक द्वैत पैदा हो गया है। 99 फीसदी से भी अधिक तकलीफ इसी द्वैत की वजह से है। जो कोई भी इस द्वैत को लांघ प्रकृति और स्वयं के बीच अद्वैत को महसूस कर लेता है; उसका जीवन अत्यंत सरल और सुखद हो जाता है। मिट्टी है मिट्टी में मिल जाएगा ; यह आत्यंतिक सत्य जो महसूस करने लगता है उसके अधिकांश मानसिक संताप शीतल पड़ने लगता है; एक दम रिलेक्स हो जाता है !

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