तितिक्षा
कल्पना कीजिए कि आप खाना बना रहे हैं। तेल या घी के गर्म होने पर, आप जैसे विभिन्न सामग्रियां - सब्जियां, मसाले इत्यादि बर्तन में डालते हैं, सुसंगत तापमान बनाए रखने की आवश्यकता होती है। यदि बर्तन अधिक गर्म है, तो आपका पकवान जल सकता है। यदि तापमान कम है, तो शायद पकवान कच्चा ही रह जाए। पूरी प्रक्रिया के दौरान, आपको यह सुनिश्चित करने के लिए तापमान को सावधानीपूर्वक समायोजित करना होगा ताकि सम्पूर्ण सामग्री कुछ समान रूप से पक जाए। यह सचेतन नियमन और परिणाम पर निरंतर निगरानी रख कर व्यंजन तैयार करने वाले लम्बे लगने वाले समय को स्वीकार करना भारतीय दर्शन में 'तितिक्षा' की अवधारणा के समान है। यह किसी खेल के समान है- हमें ध्यान से खेलना है, परिश्रम करना है ताकि हम अच्छे परिणाम प्राप्त करें।
संस्कृत शब्द तितिक्षा पर अक्सर वेदांत और योग परंपराओं में चर्चा की गयी है, जिसे सहनशीलता या धीरज के मानसिक दृष्टिकोण के समरूप माना गया है। यह गुण जीवन की विभिन्न चुनौतियों के बीच समभाव और संयम बनाए रखने के बारे में है। यह ठीक वैसा ही है जैसे आपके पकवान के बर्तन की देखभाल - जिसके लिए आपके धैर्य और तापमान के संतुलन की आवश्यकता होती है। तितिक्षा बिना किसी शिकायत के कठिनाइयों को सहने, उन्हें जीवन के प्राकृतिक उतार- चढ़ाव के एक हिस्से के रूप में स्वीकार करने की क्षमता है।
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित 'विवेकचूड़ामणि' में तितिक्षा की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। उन्होंने तितिक्षा को एक श्लोक से परिभाषित किया हैं:
सहनं सर्वदुःखानामप्रतिकारपूर्वकम् ।
चिंताविलापराहितं स तितिक्षा निगद्यते ॥
अर्थात, सभी कष्टों को बिना दुःख के सहन करना, उनके निवारण की चिंता करना, स्वतंत्र रहना (उसी समय पर) और उनसे उत्पन्न चिंता या विलाप से भी मुक्त रहने को तितिक्षा या सहनशीलता कहा जाता है।
यह श्लोक तीन बातें स्पष्ट करता है- तितिक्षा में सभी प्रकार के कष्टों को सहना शामिल है। दूसरा, इन कष्टों के लिए तत्काल उपचार या समाधान खोजने की आवश्यकता नहीं है। तीसरा, यह इन कठिनाइयों के बारे में विलाप और शिकायत से परहेज करने की मांग करता है। यहां कठिनाइयों को सहने से तात्पर्य है जीवन के अपरिहार्य कष्टों को बिना अभिभूत हुए स्वीकार करना। अर्थात, चुनौतियों का डटकर सामना करें, क्योंकि वे क्षणिक हैं और मानवीय अनुभव का अभिन्न अंग हैं। यह सत्य है कि कठिनाइयों के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है। साथ ही उन दुःखों की शिकायत न करने से मानसिक अनुशासन भी सुदृढ़ होता है, और मनुष्य असुविधा को मुखर करने की प्रवृत्ति से ऊपर उठता है। इससे आंतरिक शांति और स्थिरता बनी रहती है-जिससे आध्यात्मिकता में भी वृद्धि होती है।
किन्तु यह कैसे प्राप्त कर सकते हैं? हम मनुष्य तो भावनाओं से ही पूर्ण हैं न ! यह हमारे लिए तो अत्यधिक जटिल होगा। इस पर भी आदि शंकराचार्य ने चर्चा की हैः
शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च पंचत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः ।
कुरङ्गमात्ङ्गपतङ्गामिन भृंगा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ॥
मतलब, हिरण, हाथी, पतंगा, मछली और मधुमक्खी-इन सभी के पास ऐसी इन्द्रियां हैं जो इन्हें समस्या में बांध सकती है। उदाहरण के लिए, मनुष्य जाल फैला कर हिरण को कैद कर सकता है। गड्डा गाढ़ कर हाथी को उसमें फंसा सकता है। पतंगे को उजाले से आकर्षित कर सकता है और पुष्पों से मधुमक्खी को भी भटका कर पकड़ सकता है। अर्थात, उनकी इन्द्रियां उन्हें जिन वस्तुओं से आसक्त करती हैं उन्हीं से उनका कष्ट भी उत्पन्न होता है।
किन्तु यही मनुष्य के लिए सतर्कता का विषय है- क्योंकि पांच इन्द्रियों के कारण, हम अधिक परेशानियों में फंस सकते हैं। हमें समझना होगा कि कहां सतर्क होना है। किस आकर्षण पर हां या ना का चुनाव करना है, जिससे हम धैर्यपूर्वक निर्णय ले सकें- फिर चाहे वर्तमान स्थिति कितनी भी कठिन हो।
किन्तु क्या इससे हमारी पीड़ा कम हो जाएगी? संभवतः नहीं। तो क्या इसका मतलब यह है कि तितिक्षा का तात्पर्य जानबूझकर कष्ट सहने वाला जीवन जीना है? क्या हमें अपनी परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास किए बिना कठिनाइयों को सहना पड़ेगा? इसका उत्तर संतुलित परिप्रेक्ष्य में है। तितिक्षा का अर्थ उस चीज को स्वीकार करना है जिसे हम बदल नहीं सकते हैं। और इसके साथ ही, जहां हम परिवर्तन ला सकते हैं, वहां कार्य करने का साहस बनाए रखना है। यह उस समय अनुग्रह के साथ सहन करने के बारे में है जब कार्रवाई संभव नहीं है- वह भी परिस्थितियों से अभिभूत हुए बिना।
आज हममें से कई लोग अक्सर तनाव का सामना करते हैं जो हमारे धैर्य और संयम की परीक्षा लेते हैं। तितिक्षा का अभ्यास इन अनुभवों को बदल सकता है। उदाहरण के लिए, यदि आप भीषण गर्मी में ट्रैफिक में फंस गए हैं, तो हताश होने बजाय, तितिक्षा आपको स्थिति को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करती है। वह समझाती है कि शायद आपके चिढ़ने से स्थिति तो नहीं बदलेगी, किन्तु यह ट्रैफिक क्षणिक है। इस स्वीकृति से मन शांत होता है, जो अन्य कार्यों और चुनौतियों को बेहतर ढंग से संभाल सकता है।
यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि तितिक्षा का विकास निष्क्रिय स्वीकृति पर केन्द्रित नहीं है। यह एक आंतरिक शक्ति को विकसित करने के बारे में है जो बाहरी उतार-चढ़ाव से अस्थिर रहती है। यह स्वयं के मन-मस्तिष्क में लचीलेपन को बढ़ावा देने में समाहित है। यह हमें प्रशिक्षित करती है जिससे हम समझें कि जीवन के द्वंद्व - सुख और दर्द, सफलता और विफलता- हमारे अस्तित्व का हिस्सा हैं। यह एक महत्वपूर्ण गुण है जो हमें जीवन की अपरिहार्य कठिनाइयों को शालीनता और संयम के साथ सहन करने में मदद करता है। इस गुण को विकसित करके, हम बाहरी अराजकता के बीच आंतरिक शांति बनाए रख सकते हैं जिससे हमारे जीवन का व्यंजन भी न सिर्फ स्वादिष्ट हो, अपितु उसकी महक से हमारे आसपास वाले सभी के जीवन में भी प्रसन्नता फैल जाए।
समत्वं
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