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स्त्रियों ने सदैव पुरुषों के इशारों पर जीवन जिया है। बचपन से लेकर आजक स्त्रियों का अपना कोई फ़ैसला नहीं होता।
 कपड़ा, लता, खाना पीना का फैसला को छोड़ दें तो उसे किस से बात करनी है, किसके पास रहना है, कैसे जीवन जीना है, क्या पहनना है, कितना पहनना है, जॉब करनी है या घर में ही रहना है। सब कुछ फैसले मर्दों का है। आज बेटीयाँ सुरक्षित नहीं हैं इसका श्रेय भी पुरुषों को ही जाता है।

 ये समाज की हार है कि हमारी बेटियाँ खौफ़ में हैं। कहीं भी अकेली आने जाने में डर है। कुछ ही दिन बीतते हैं जब लड़कियाँ सोचती है कि अकेली कभी सड़क पर घूमूं परन्तु पुनः कोलकाता जैसी खबर आ जाती है। जो स्त्रियाँ अपने अंदर एक ऊर्जा भरी होती है, एक पहचान बनाने के लिए घर से दूर जाना चाहती है फिर से उन्हें घर मे कैद कर दिया जाता है। कहा जाता है घर में रहो, सुरक्षित रहोगी। बाहर खतरा है, बाहर दरिंदे घूम रहे हैं। पर एक सवाल है, उन दरिदों के भी तो बहनें होती होंगी? उन्हें ये ख्याल क्यू नहीं आता कि स्त्रियाँ भी किसी की बहन है। चलो माना आप स्त्रियों की इज्जत नहीं करतै लेकिन उन मर्दों की करो जिनकी बहनें हैं। याद रखना अकेली लड़की जिम्मेदारी होती है, न कि मौका। सड़क पर, घर मे उन्हें सुरक्षित महसूस करवाना हम पुरुषों का कर्तव्य है। वो सुरक्षित भी हैं तो पुरुषों के वजह से और सुरक्षित नहीं हैं तो भी पुरुषों की वजह से।
 कई लोग उनके कपड़े उनके पहनावे पर कमेंट करते हैं। मेरा मानना है उनके कपड़े उनके पसन्द के होने चाहिए। उनके कपड़े को दोष देकर आप खुद के वहसीपन को जस्टिफाई नहीं कर सकते। समाज उदाहरण से भरा है जहाँ हर उम्र के स्त्रियों के साथ दुष्कर्म हो चुका है। वर्ष 0 से लेकर वर्ष अस्सी तक के बेटियों के साथ जबरदस्ती दुष्कर्म हो चुका है। इसका कारण एक है 'सोच। हमारी सोच जबतक स्त्रियों को दबा कर स्खने की होगी, जब तक उनको एक शरीर से अधिक नहीं समझा जायगा तब तक समाज मे पोटेंशियल रेपिस्ट भरे रहेगे। पोटेंशियल रेपिस्ट और रेपिस्ट में अधिक फर्क नहीं होता।
 आज पूरी पुरुष जाति शर्मिंदा है। कोलकाता में हुए इस दुष्कर्म ने पुरुषों को फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है कि समाज मे अधिपत्य रखने के वावजूद आज चीजें हाथ से निकल गयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता महिलाओं के हाथ मे होती तो मामलों में थोड़ी कमी आती। खैर, कई सवाल है। कई उलझने हैं, दर्द है और सामाजिक बेचैनी भी। कुछ बोलना, कहना उचित है भी और नहीं भी। बदलाव लाने के लिए, पहले स्वयं से बदलना होता है। खैर। हैवान का हैवानियत उनके कर्म के बाद दिखते हैं परंतु एक हैवान वो भी हैं कि जिन्हें मौका नहीं मिला है, वरना अकेली लड़की देख के वो भी छेड़ दें। 
रेपिस्ट और पोटेंशियल रेपिस्ट में अधिक अंतर नहीं होता।
केवल एक मौका का भेद होता है। अपने उसूलों को मजबूत बनाएं, बेटियों को सूरक्षित महसूस कराएं।

 सभ्य होने के बहाने पालतू नहीं बनें। यहीं से शोषण की शुरुआत होती है। 

 सर्वे भवन्तु सुखिन। ........ 🙏

Comments

  1. दुनियां वैश्वीकरण के दौर मे हैं. लोगों के सुविधाएं, संसाधन आज के बदलते युग जैसा है लेकिन बात आती हैं उनकी समझ, उनकी सोच,उनके विचार की तब उस रूढ़िवादी समझ किसी महिला, ल़डकियों के रूप मे देखना चाहते है. स्वयं उनकी सुविधा आज जैसी चाहिए लेकिन बहु, बेटी को उस दौर जैसे ही रखना चाहते है. सोच वही के वही हैं दूसरे के प्रति संकीर्ण विचारधारा समय और बर्ष के साथ क्यों नहीं बदलती?
    बहुत सी ल़डकियों कपड़ा, खाना ,पढ़ाई भी अपने पसंद की नहीं कर पाती हैं. वह स्वयं को समझा लेती हैं कि मेरा पसंद दूसरे के पसंद जैसा ही हैं. और compermise कर लेती हैं.

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