आहार-शुद्धि

सलाद था, सैंडविच था, या कुछ ऐसा जो आपको कई दिन से खाना था? किन्तु विचार करें- क्या आपने 'मात्र' खाना खाया ? या फिर आपके मस्तिष्क ने उस जानकारी से भी 'आहार' लिया जो आपको भोजन ग्रहण करते समय अपने स्मार्टफ़ोन से मिली ? या टीवी पर आने वाली कोई खबर का स्वाद भी लिया, जिसने आपके मन को झकझोर दिया ? या कोई जानकारी जिसे अब आत्मसात करना आपकी आदत ही बन चुकी है ?

यह प्रश्न एक प्राचीन आध्यात्मिक अवधारणा पर आधारित है जिसे 'आहारशुद्धि' कहा जाता है- हम जो कुछ भी खाते हैं उसकी शुद्धता-न केवल हमारे मुंह से बल्कि हमारी आंखों, कानों और विचारों से भी। आज अति- उत्तेजित दुनिया में, आहारशुद्धि को समझना न केवल प्रासंगिक है बल्कि जरूरी भी है। 
छांदोग्य उपनिषद में कहा गया हैः
 'आहारशुद्धौ सत्व शुद्धिः' जिसका अर्थ है, 'जब भोजन शुद्ध होता है, तो मन शुद्ध हो जाता है।' लेकिन 'भोजन' शब्द से भ्रमित मत होइए - यह हर उस कण का रूपक है जिसे हम अपने अस्तित्व में प्रवेश करने कि अनुमति देते हैं। निश्चित ही भोजन शरीर को पोषण देता है- किन्तु क्या मन को पोषण देता है ? हमारे सेवन की शुद्धता हमारी चेतना की स्पष्टता निर्धारित करती है, और इस स्पष्टता के माध्यम से, हम संतुलन, रचनात्मकता और स्वयं के साथ एक गहरे संबंध का अनुभव करते हैं।

प्राचीन भारत में, भोजन को अत्यधिक श्रद्धा के साथ तैयार किया जाता था। खाना पकाने का मंत्रों के उच्चारण और मनन से पूर्ण होता था और हर भोजन को एक प्रसाद या नैवेद्य माना जाता था। भोजन करना केवल एक सांसारिक गतिविधि नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। आज भी भोजन उतनी ही स्वच्छता से तैयार किया जाता है, किन्तु अब उसे एक सुविधा मान लिया गया है। हम भोजन अक्सर जल्दबाजी में खाते हैं, या स्क्रीन पर नोटिफिकेशन स्क्रॉल करते तुरंत ही अपने काम में लीन हो जाते हैं। इस इस तरह के नासमझ उपभोग की ऊर्जा के बारे में आहारशुद्धि चेतावनी देती है। जब हम बिना स्व कि चेतना और उपस्थिति के खाते हैं, तो हम आवश्यक कैलोरी से अधिक अवशोषित करते हैं- हम वियोग और व्याकुलता की ऊर्जा लेते हैं।

लेकिन मैं यहां मात्र भोजन कि चर्चा नहीं कर रहा हूं। आहार शुद्धि 'प्लेट' तक ही सीमित नहीं है। हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं, उसे शामिल करती है। अपने विचारों और बातचीत के दैनिक सेवन के बारे में सोचें।

क्या ये आहार (सेवन) के रूप नहीं हैं? उपनिषद इस बात पर जोर देते हैं कि हमारे मानसिक और संवेदी सेवन की गुणवत्ता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। नकारात्मकता से भरा हुआ अव्यवस्थित मन आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक शांति और स्पष्टता प्राप्त नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, क्या आपने कभी सोशल मीडिया पर लंबे समय तक स्क्रॉल करने के बाद थकावट महसूस की है? या समाचार देखने के बाद उत्तेजित हुए हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि हम इसे महसूस करें या न करें, हम जो कुछ भी खाते हैं वह हमारी आंतरिक दुनिया पर छाप छोड़ता है।

प्राचीन विद्वानों ने इसे पहचाना, और हमें अपने सेवन के द्वारपाल बनने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि डर से नहीं बल्कि आत्म-संरक्षण और विकास के कार्य के रूप में सेवन करें।

भगवद्गीता भोजन और सेवन को तीन प्रकारों में वर्गीकृत करके आगे की अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैः सात्विक (शुद्ध, सामंजस्यपूर्ण), राजसिक (उत्तेजक, बेचैन करने वाले), और तामसिक (सुस्त, विनाशकारी)। सात्विक सेवन स्पष्टता, शांति और संतुलन का पोषण करता है। राजसिक सेवन मन को उत्तेजित करता है, लेकिन अंततः थका देता है। दूसरी ओर, तामसिक सेवन निर्णय को धुंधला कर देता है और जड़ता को बढ़ावा देता है। जब हम सचेत रूप से सात्विक विकल्पों का चुनाव करते हैं, तो हम एक संतुलित और सामंजस्यपूर्ण जीवन की नींव रखते हैं।

आहारशुद्धि केवल एक व्यक्तिगत अभ्यास नहीं है इसके व्यापक प्रभाव हैं।
 जब हम ध्यानपूर्वक उपभोग करते हैं, तो हम ध्यानपूर्वक कार्य करते हैं। हमारे रिश्ते बेहतर होते हैं, हमारे निर्णय अधिक विचारशील होते हैं, और हमारे कार्य अधिक उद्देश्य की भावना के साथ संरेखित होते हैं। यहां तक कि पर्यावरण के साथ हमारी बातचीत का तरीका भी बदल जाता है। कैसे? ऐसे, कि जब हम बिना सोचे-समझे संसाधनों का उपभोग करते हैं, तो हम अति उपभोग और बर्बादी के चक्र को कायम रखते हैं, जिससे पारिस्थितिक असंतुलन होता है- जिसका हम अभी सामना कर रहे हैं। लेकिन जब हम श्रद्धा के साथ उपभोग करते हैं, इसे आहारशुद्धि का विस्तार मानते हैं, तो हम स्वयं को ब्रह्मांडीय व्यवस्था के साथ संरेखित करते हैं।

तंत्रिका विज्ञान दर्शाता है कि कैसे उत्थानशील सामग्री का सेवन सकारात्मकता और लचीलेपन के लिए मस्तिष्क को तैयार करता है। अर्थात, यह सुखों को त्यागने के बारे में नहीं, बल्कि उन्हें परिष्कृत करने के बारे में है। अगर आप अपनी सुबह की चाय को पूरे मन से, बिना जल्दबाजी के विचार से बनाते हैं, या बिना किसी विकर्षण के भोजन का आनंद लेते हैं, या सचेत रूप से उत्थानकारी पुस्तकें या संगीत सुनते हैं, तो आप अपने जीवन में विचारशील विकल्पों के माध्यम से बड़े बदलाव ला सकते हैं।

जिस प्रकार ऋषि उद्दलक अपने पुत्र श्वेतकेतु को देह, मन और आत्मा के परस्पर संबंध के बारे में सिखाते हैं, उसी प्रकार अच्छे विचारों का सेवन हमारे जीवन में जो शुद्धता लाता है, वह हमारे सार को आकार देती है। आवश्यक यह है कि हम प्रतिदिन स्वयं से प्रश्न करें कि हम अपनी आत्मा को क्या परोस रहे हैं। आहारशुद्धि हमें याद दिलाती है कि हम निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं हैं, बल्कि अपने आंतरिक और बाहरी दुनिया को आकार देने में सक्रिय भागीदार हैं। हम जो भी चुनाव करते हैं हम क्या खाते हैं, पढ़ते हैं, देखते हैं, या सोचते हैं वह सामंजस्य या अव्यवस्था की ओर एक कदम है। और इस जागरूकता में बेहतर चुनने की स्वतंत्रता निहित है।

विकर्षणों और प्रलोभनों से भरी दुनिया में, आहारशुद्धि सादगी, संतुलन और प्रामाणिकता की ओर लौटने का मार्ग प्रदान करती है। यह वंचना के बारे में नहीं बल्कि मुक्ति के बारे में है- इस तरह से उपभोग करने के बारे में जो बांधने के बजाय मुक्त करता है, बोझिल करने के बजाय हमें शक्तिशाली बनाकर आध्यात्मिकता में विकास कराता है। तो अगली बार जब आप खाएं, सुनें या सोचें, तो रुकें और खुद से पूछेंः क्या यह मुझे पोषण दे रहा है- या मुझे कमजोर कर रहा है?

ओम् ♾️🍃🌼❤️

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