बुद्ध पूर्णिमा


एक संन्यासी या क्रांतिकारी?


जिसने राजमहल छोड़ दिया, वह संन्यासी नहीं, क्रांतिकारी था। गौतम बुद्ध, जिन्हें दुनिया एक शांतिदूत के रूप में जानती है, दरअसल समाज की जड़ों को हिलाने वाले पहले विद्रोही थे। उस युग में, जब समाज वर्ण-व्यवस्था के बंधनों में जकड़ा था, बुद्ध ने कहा—कोई ऊँच-नीच नहीं, न ब्राह्मण, न शूद्र। यह पागलपन नहीं था, यह भविष्य का निर्माण था। बुद्ध पाखंड के खिलाफ तर्क की मशाल लेकर आए। उन्होंने देवताओं को नकारा, आत्मा को नकारा, पुनर्जन्म को कारण-कार्य की शृंखला में बांधा, और कर्मकांडों को ध्वस्त कर दिया।

दुख की जड़ और पूंजी का शोषण

बुद्ध ने कहा—दुख है। फिर पूछा—क्यों है? और जवाब दिया—चाह से, लोभ से, संग्रह से। यह वही बात नहीं, जो सदियों बाद कार्ल मार्क्स ने कही कि शोषण की जड़ संपत्ति है, पूंजी है? बुद्ध ने पहले ही घोषणा कर दी थी—“न धन से संतोष मिलता है, न संग्रह से समाधान।” उनका दर्शन वर्गहीन समाज की कल्पना था, जहां न कोई जन्म से श्रेष्ठ है, न नीच। यह उसी भावना का प्रारंभिक रूप था, जो मार्क्स ने अपने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में व्यक्त किया—“दुनिया के मजदूरों, एक हो जाओ!”

जाति के खिलाफ बम: बुद्ध का विद्रोह

बुद्ध ने भिक्षु बनाए, लेकिन जन्म को नहीं, कर्म को मापदंड बनाया। उन्होंने किसी की जाति नहीं पूछी। अम्बपाली जैसी गणिका को भी संघ में स्थान दिया, क्योंकि उसका मन शुद्ध था, उसकी चेतना ऊँची थी। उस समाज में, जहां वेदों के चार वर्ण ही पूरी व्यवस्था थे, बुद्ध का यह कहना कि कोई जन्म से नीच या श्रेष्ठ नहीं—यह राजद्रोह था। यह यथास्थितिवाद को चीर देने वाला दर्शन था। यह भारतीय संदर्भ में वर्ग संघर्ष की शुरुआत थी।

सिंहासन का त्याग: चेतना की लड़ाई

बुद्ध राजा बन सकते थे। सिंहासन उनके पैरों में था। लेकिन उन्होंने लोभ को ठुकराया। क्यों? क्योंकि वे जानते थे कि असली लड़ाई बाहर की नहीं, व्यवस्था की है भीतर की है। और व्यवस्था के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है चेतना। बुद्ध ने भीख मांगने वालों को सोचने की ताकत दी, शूद्रों को मंच दिया, महिलाओं को सम्मान दिया। उन्होंने यज्ञों को आग में झोंका और तर्क को देवता बनाया। वे क्रांति की आग थे, और तर्क उनके हाथ में मशाल था।

शांत नहीं, धधकता वज्र

लोग कहते हैं, बुद्ध शांत थे। नहीं! बुद्ध शांत नहीं थे। वे जलते जंगल की तरह थे, धधकते वज्र की तरह। उनका मौन शोर था, उनका ध्यान प्रतिरोध था। वे कम बोले, लेकिन जब बोले, वेदों की नींव हिल गई, पुरोहितों की नींद उड़ गई, राजाओं के तख्त डगमगाए। बुद्ध का हर शब्द एक हथौड़ा था, जो पाखंड की दीवारों को तोड़ रहा था।

बुद्ध और मार्क्स: एक ही सिक्के के दो पहलू

अगर कोई सोचता है कि मार्क्सवाद यूरोप की देन है, तो वह बुद्ध को नहीं जानता। भारत का पहला मार्क्सवादी न कार्ल मार्क्स था, न किसी कम्युनिस्ट पार्टी का संस्थापक। वह शाक्यमुनि सिद्धार्थ था, जिसने दुनिया को बताया कि समाज कैसे बदलता है, और चेतना कैसे वर्गीय ढांचे को चीर देती है। बुद्ध का “अप्प दीपो भव” (स्वयं अपना दीपक बनो) वही है, जो मार्क्स ने कहा—मनुष्य ही मनुष्य का उद्धारक है। कोई ईश्वर नहीं, कोई भाग्य नहीं, सिर्फ संघर्ष है, सिर्फ परिवर्तन है।

आज के बुद्ध: सड़कों पर क्रांति

यदि बुद्ध आज होते, तो वे संसद में नहीं, सड़कों पर होते। वे अम्बेडकर, भगत सिंह, और मार्क्स के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते। वे शोषितों, दलितों, मजदूरों के साथ होते। और वे फिर कहते—“अप्प दीपो भव।” खुद को जलाओ, खुद को बनाओ, खुद को उठाओ। यही मार्क्सवाद है। यही बुद्ध का दर्शन है।

बुद्ध का अमर संदेश

बुद्ध जीवित हैं। वे हर उस व्यक्ति में हैं, जो अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है। वे हर उस विचार में हैं, जो कहता है—सब समान हैं। जब तक यह आवाज गूंजती रहेगी, बुद्ध न केवल धर्म, बल्कि क्रांति के प्रतीक बने रहेंगे। उनका दर्शन हमें याद दिलाता है कि परिवर्तन संभव है, और चेतना ही वह हथियार है, जो समाज को बदल सकती है।

आइए, बुद्ध की मशाल को थामें। आइए, उनके दिखाए रास्ते पर चलें। क्योंकि क्रांति का मतलब है—खुद को और समाज को नया जन्म देना। 
अप्प दीपो भव!

बुद्ध पूर्णिमा 2025
पठानकोट 

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