"प्रेम क्या है?"

नमस्ते दोस्तों!

मनुष्यता के इतिहास में जिन प्रश्नों पर सबसे अधिक चिंतन हुआ है, उनमें से एक है – "प्रेम क्या है?" । और तमाम प्रश्नों की तरह, इसका भी एक सही जवाब आज तक नहीं मिल पाया है ।

जिस तरह दो लोगों के फिंगरप्रिंट्स एक जैसे नहीं हो सकते, उसी तरह दो लोगों की प्रेम की समझ और उसकी परिभाषा एक जैसी नहीं हो सकती है। इस संसार में जितने लोग हैं, प्रेम को पाने और प्रेम को समझने के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, इसके बावजूद प्रेम की कोई एक परिभाषा नहीं हो सकती । जिसे एक व्यक्ति प्रेम कहता है, दूसरा उसे लालच या लगाव मान सकता है ।

हम अक्सर प्रेम की परिभाषा करने की बजाय उसके उपयोग के बारे में चर्चा करने लगते हैं । जैसे कि प्रेम हमें अकेला होने से बचाता है, हमारे चेहरे पर मुस्कान लाता है, और हमारी आत्मा पर अमृत बूंदें बरसाता है । लेकिन ये सब तो प्रेम के उपयोग हैं, उसकी परिभाषा नहीं । हम उपयोग को परिभाषा समझने की भूल कर बैठते हैं ।

आखिर हम प्रेम करते ही क्यों हैं?
यह जैसा कि कहा जाता है, हम प्रेम 'करते' नहीं हैं, बल्कि यह 'हो जाता' है । इसके पीछे कई विचार और सिद्धांत रहे हैं:

एक मुखौटा या ज़रूरत? कुछ लोग कहते हैं कि प्रेम कोई विचार या मानसिक स्थिति है जो हमारी यौन इच्छाओं को छुपाने के लिए गढ़ा गया एक मुखौटा है, या फिर यह दुनिया की एक मूलभूत ज़रूरत है ।
प्लेटो का सिद्धांत - संपूर्णता की तलाश: एक पुरानी यूनानी कहानी के अनुसार, इंसान के पास पहले चार हाथ, चार पैर और दो चेहरे थे । वह घमंड में इतराता रहता था, जिससे देवताओं के राजा ज़ीउस को गुस्सा आया और उसने इंसान को दो हिस्सों में बांट दिया । तब से इंसान अधूरा है और पूरा होने के लिए इस धरती पर अपने दूसरे हिस्से को खोजता रहता है । इस अर्थ में, प्यार अपनी आत्मा के दूसरे टुकड़े को खोज लेने जैसा है।
   हालाँकि, इस पर एक प्रश्न भी उठता है कि यदि यही बात है, तो संपूर्णता पूरी होने के बाद प्रेम समाप्त हो जाना चाहिए, लेकिन इंसान एक से ज़्यादा प्रेमियों के साथ भी खुद को संपूर्ण महसूस करता है । यह प्रचलित मान्यता कि प्यार तो एक ही बार होता है और सिर्फ एक ही व्यक्ति से होता है, पूरी तरह गले से नीचे नहीं उतरती है ।
खुशी की तलाश में प्रेम: कुछ लोग खुश होने के लिए प्रेम करते हैं । लेकिन कभी-कभी, प्यार करने के बाद, लोग सामने वाले में इतनी खामियां खोजने लगते हैं कि चारों ओर बस दुख ही दुख फैल जाता है । जर्मन दार्शनिक लुडविग फ़्यूरबाख ने कहा है कि हम अपने प्रेमियों से खुशी की उम्मीद करते हैं, लेकिन असली खुशी हम सिर्फ खुद को दे सकते हैं। दूसरों से खुशी की उम्मीद करना ही समस्या की जड़ है ।

प्रेम की वास्तविक प्रकृति:
प्रेम को समझने की बजाय, उसे अनुभव करना ज़्यादा महत्वपूर्ण है । जैसे शक्कर का स्वाद आप किसी को नहीं बता सकते, उसे खुद अनुभव करना होता है । उसी तरह, प्रेम नमकीन है या मीठा, आग का दरिया है या बर्फ का पहाड़, यह जानने के लिए खुद प्रेम करना पड़ता है ।
  प्रेम एक नदी की धारा की तरह हर पल नया होता रहता है ।
आप चाहें तो एक ही व्यक्ति से हज़ार प्रेम कर सकते हैं, और चाहें तो हज़ार लोगों से अलग-अलग तरीके का प्रेम कर सकते हैं ।
 यह किताब पढ़ने से कहीं ज़्यादा सुंदर है ।
  कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन पर चिंतन-मनन करने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है उनको जीना, और प्रेम बिल्कुल ऐसी ही एक चीज़ है ।

यहीं पर बुद्ध की एक बात याद आती है कि हम दरअसल अपने ही एक प्रतिबिंब से प्रेम करते हैं । कहा जाता है कि इंसान जैसा होगा, उसका प्रेम भी वैसा ही होगा और उसका ईश्वर भी।

अंततः, प्रेम को सबसे बड़ा तोहफा माना गया है जो हम किसी को दे सकते हैं। यह एक ऐसी अनुभूति है जिसे शब्दों में बांधना लगभग असंभव है, लेकिन जिसका अनुभव हमें जीवन की सबसे गहरी अनुभूतियों से जोड़ता है।

आप प्रेम के बारे में क्या सोचते हैं? आपकी क्या अनुभूतियां हैं? कमेंट बॉक्स में ज़रूर लिखिए!

हरिओम तत् सत् 
संगरुर 

Comments

Popular posts from this blog

स्वयं की अंतर यात्रा

आश्रय

मेला